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एक अजीब राग है एक अजीब गुफ़्तुगू | शाही शायरी
ek ajib rag hai ek ajib guftugu

ग़ज़ल

एक अजीब राग है एक अजीब गुफ़्तुगू

जमीलुद्दीन आली

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एक अजीब राग है एक अजीब गुफ़्तुगू
सात सुरों की आग है आठवीं सुर की जुस्तुजू

बुझते हुए मिरे ख़याल जिन में हज़ार-हा सवाल
फिर से भड़क के रूह में फैल गए हैं चार-सू

तीरा-शबी पे सब्र था सो वो किसी को भा गया
आप ही आप छा गया एक सहाब-ए-रंग-ओ-बू

हँसती हुई गई है सुब्ह प्यार से आ रही है शाम
तेरी शबीह बन गई वक़्त की गर्द हू-ब-हू

फिर ये तमाम सिलसिला क्या है किधर को जाएगा
मेरी तलाश दर-ब-दर तेरा गुरेज़ कू-ब-कू

ख़ून-ए-जुनूँ तो जल गया शौक़ किधर निकल गया
सुस्त हैं दिल की धड़कनें तेज़ है नब्ज़-ए-आरज़ू

तेरा मिरा क़ुसूर क्या ये तो है जब्र-ए-इर्तिक़ा
बस वो जो रब्त हो गया आप ही पा गया नुमू

मैं जो रहा हूँ बे-सुख़न ये भी है एहतिराम-ए-फ़न
यानी मुझे अज़ीज़ थी अपनी ग़ज़ल की आबरू