आज भी शाम-ए-ग़म! उदास न हो
माँग कर मैं चराग़ लाता हूँ
अज़हर इनायती
आज शहरों में हैं जितने ख़तरे
जंगलों में भी कहाँ थे पहले
अज़हर इनायती
अब मिरे ब'अद कोई सर भी नहीं होगा तुलू'अ
अब किसी सम्त से पत्थर भी नहीं आएगा
अज़हर इनायती
अजब जुनून है ये इंतिक़ाम का जज़्बा
शिकस्त खा के वो पानी में ज़हर डाल आया
अज़हर इनायती
अपनी तस्वीर बनाओगे तो होगा एहसास
कितना दुश्वार है ख़ुद को कोई चेहरा देना
अज़हर इनायती
चौराहों का तो हुस्न बढ़ा शहर के मगर
जो लोग नामवर थे वो पत्थर के हो गए
अज़हर इनायती
ग़ज़ल का शेर तो होता है बस किसी के लिए
मगर सितम है कि सब को सुनाना पड़ता है
अज़हर इनायती
घर से किस तरह मैं निकलूँ कि ये मद्धम सा चराग़
मैं नहीं हूँगा तो तन्हाई में बुझ जाएगा
अज़हर इनायती
हम-अस्रों में ये छेड़ चली आई है 'अज़हर'
याँ 'ज़ौक़' ने 'ग़ालिब' को भी ग़ालिब नहीं समझा
अज़हर इनायती