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अभी बिछड़ा है वो कुछ रोज़ तो याद आएगा | शाही शायरी
abhi bichhDa hai wo kuchh roz to yaad aaega

ग़ज़ल

अभी बिछड़ा है वो कुछ रोज़ तो याद आएगा

अज़हर इनायती

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अभी बिछड़ा है वो कुछ रोज़ तो याद आएगा
नक़्श रौशन है मगर नक़्श है धुंदलाएगा

घर से किस तरह मैं निकलूँ कि ये मद्धम सा चराग़
मैं नहीं हूँगा तो तन्हाई में बुझ जाएगा

अब मिरे बा'द कोई सर भी नहीं होगा तुलूअ'
अब किसी सम्त से पत्थर भी नहीं आएगा

मेरी क़िस्मत तो यही है कि भटकना है मुझे
रास्ते तू मिरे हमराह किधर जाएगा

अपने ज़ेहनों में रचा लीजिए इस दौर का रंग
कोई तस्वीर बनेगी तो ये काम आएगा

इतने दिन हो गए बिछड़े हुए उस से 'अज़हर'
मिल भी जाएगा तो पहचान नहीं पाएगा