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अज़हर इनायती शायरी | शाही शायरी

अज़हर इनायती शेर

40 शेर

घर से किस तरह मैं निकलूँ कि ये मद्धम सा चराग़
मैं नहीं हूँगा तो तन्हाई में बुझ जाएगा

अज़हर इनायती




हम-अस्रों में ये छेड़ चली आई है 'अज़हर'
याँ 'ज़ौक़' ने 'ग़ालिब' को भी ग़ालिब नहीं समझा

अज़हर इनायती




हर एक रात को महताब देखने के लिए
मैं जागता हूँ तिरा ख़्वाब देखने के लिए

अज़हर इनायती




आज भी शाम-ए-ग़म! उदास न हो
माँग कर मैं चराग़ लाता हूँ

अज़हर इनायती




इस कार-ए-आगही को जुनूँ कह रहे हैं लोग
महफ़ूज़ कर रहे हैं फ़ज़ा में सदाएँ हम

अज़हर इनायती




इस रास्ते में जब कोई साया न पाएगा
ये आख़िरी दरख़्त बहुत याद आएगा

अज़हर इनायती




जहाँ ज़िदें किया करता था बचपना मेरा
कहाँ से लाऊँ खिलौनों की उन दुकानों को

अज़हर इनायती




जवान हो गई इक नस्ल सुनते सुनते ग़ज़ल
हम और हो गए बूढ़े ग़ज़ल सुनाते हुए

अज़हर इनायती




जवानों में तसादुम कैसे रुकता
क़बीले में कोई बूढ़ा नहीं था

अज़हर इनायती