मिरी कहानी रक़म हुई है हवा के औराक़-ए-मुंतशिर पर
मैं ख़ाक के रंग-ए-ग़ैर-फ़ानी को अपनी तस्वीर कर रहा हूँ
असलम महमूद
आ गया कौन ये आज उस के मुक़ाबिल 'असलम'
आईना टूट गया अक्स की ताबानी से
असलम महमूद
मैं एक रेत का पैकर था और बिखर भी गया
अजब था ख़्वाब कि मैं ख़्वाब ही में डर भी गया
असलम महमूद
ख़ता ये थी कि मैं आसानियों का तालिब था
सज़ा ये है कि मिरा तीशा-ए-हुनर भी गया
असलम महमूद
कहाँ भटकती फिरेगी अँधेरी गलियों में
हम इक चराग़ सर-ए-कूचा-हवा रख आए
असलम महमूद
हम दिल से रहे तेज़ हवाओं के मुख़ालिफ़
जब थम गया तूफ़ाँ तो क़दम घर से निकाला
असलम महमूद
गुज़रते जा रहे हैं क़ाफ़िले तू ही ज़रा रुक जा
ग़ुबार-ए-राह तेरे साथ चलना चाहता हूँ मैं
असलम महमूद
देख आ कर कि तिरे हिज्र में भी ज़िंदा हैं
तुझ से बिछड़े थे तो लगता था कि मर जाएँगे
असलम महमूद
बे-रंग न वापस कर इक संग ही दे सर को
कब से तिरा तालिब हूँ कब से तिरे दर पर हूँ
असलम महमूद