EN اردو
नए पैकर नए साँचे में ढलना चाहता हूँ मैं | शाही शायरी
nae paikar nae sanche mein Dhalna chahta hun main

ग़ज़ल

नए पैकर नए साँचे में ढलना चाहता हूँ मैं

असलम महमूद

;

नए पैकर नए साँचे में ढलना चाहता हूँ मैं
मिज़ाज-ए-ज़िंदगी यकसर बदलना चाहता हूँ मैं

ज़मीं तेरी कशिश ने रोक रक्खा है मुझे वर्ना
हुदूद-ए-ख़ाक से बाहर निकलना चाहता हूँ मैं

नुमू का जोश ठोकर मारता रहता है सीने में
लहू का चश्मा हूँ कब से उबलना चाहता हूँ मैं

गुज़रते जा रहे हैं क़ाफ़िले तू ही ज़रा रुक जा
ग़ुबार-ए-राह तेरे साथ चलना चाहता हूँ मैं

मैं अपने बर्फ़ के पैकर से ख़ुद उकता गया हूँ अब
चमक मुझ पर मिरे सूरज पिघलना चाहता हूँ में

सदाएँ दश्त देता है मुझे वहशत बुलाती है
सो ख़ाक-ए-इश्क़ अपने सर पे मलना चाहता हूँ मैं

इधर से भी कोई गुज़रे कि मैं जिस से कहूँ 'असलम'
चराग़-ए-रहगुज़र हूँ और जलना चाहता हूँ मैं