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हर रंग-ए-तरब मौसम ओ मंज़र से निकाला | शाही शायरी
har rang-e-tarab mausam o manzar se nikala

ग़ज़ल

हर रंग-ए-तरब मौसम ओ मंज़र से निकाला

असलम महमूद

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हर रंग-ए-तरब मौसम ओ मंज़र से निकाला
इक रास्ता फिर सई-ए-मुकर्रर से निकाला

चलने लगी हर सम्त से जब बाद-ए-ख़ुश-आसार
इक और भँवर हम ने समुंदर से निकाला

देती रही आवाज़ पे आवाज़ ये दुनिया
सर हम ने न फिर ख़ाक की चादर से निकाला

कम पड़ गई पर्वाज़ को जब वुसअत-ए-अफ़्लाक
इक और फ़लक अपने ही शहपर से निकाला

हम दिल से रहे तेज़ हवाओं के मुख़ालिफ़
जब थम गया तूफ़ाँ तो क़दम घर से निकाला

अब कैफ़ियत ओ रंग नज़र आई जो दुनिया
मौसम नया फिर अपने ही अंदर से निकाला

आसार नज़र आए न सैराबी-ए-दिल के
थक-हार के सौदा-ए-नुमू सर से निकाला