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असलम आज़ाद शायरी | शाही शायरी

असलम आज़ाद शेर

12 शेर

अपना मकान भी था उसी मोड़ पर मगर
जाने मैं किस ख़याल में औरों के घर गया

असलम आज़ाद




धूप के बादल बरस कर जा चुके थे और मैं
ओढ़ कर शबनम की चादर छत पे सोया रात भर

असलम आज़ाद




दोस्तों के साथ दिन में बैठ कर हँसता रहा
अपने कमरे में वो जा कर ख़ूब रोया रात भर

असलम आज़ाद




हमारे बीच वो चुप-चाप बैठा रहता है
मैं सोचता हूँ मगर कुछ मुझे पता न लगे

असलम आज़ाद




हज़ार बार निगाहों से चूम कर देखा
लबों पे उस के वो पहली सी अब मिठास नहीं

असलम आज़ाद




किसी तरह न तिलिस्म-ए-सुकूत टूट सका
वो दे रहा था बहुत दूर से सदा मुझ को

असलम आज़ाद




कोई दीवार सलामत है न अब छत मेरी
ख़ाना-ए-ख़स्ता की सूरत हुई हालत मेरी

असलम आज़ाद




मैं ने अपनी ख़्वाहिशों का क़त्ल ख़ुद ही कर दिया
हाथ ख़ून-आलूद हैं इन को अभी धोया नहीं

असलम आज़ाद




न दश्त ओ दर से अलग था न जंगलों से जुदा
वो अपने शहर में रहता था फिर भी तन्हा था

असलम आज़ाद