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जगमगाती ख़्वाहिशों का नूर फैला रात भर | शाही शायरी
jagmagati KHwahishon ka nur phaila raat bhar

ग़ज़ल

जगमगाती ख़्वाहिशों का नूर फैला रात भर

असलम आज़ाद

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जगमगाती ख़्वाहिशों का नूर फैला रात भर
सेहन-ए-दिल में वो गुल-ए-महताब बिखरा रात भर

एक भूला वाक़िआ जब दफ़अतन याद आ गया
आतिश-ए-ज़ौक़-ए-तलब ने फिर जलाया रात भर

दोस्तों के साथ दिन में बैठ कर हँसता रहा
अपने कमरे में वो जा कर ख़ूब रोया रात भर

नींद के सहरा में पानी की तरह गुम हो गया
मैं ने उस को ख़्वाब में हर सम्त ढूँडा रात भर

धूप के बादल बरस कर जा चुके थे और मैं
ओढ़ कर शबनम की चादर छत पे सोया रात भर

नींद की कोमल फ़सीलें आँधियों में बह गईं
मैं ने अपने ख़्वाब की लाशों को ढोया रात भर

नर्म बिस्तर पर शिकन की किर्चियाँ बिखरी रहीं
मैं ने 'असलम' इक अजब सा ख़्वाब देखा रात भर