हर टूटे हुए दिल की ढारस है तिरा वअ'दा
जुड़ते हैं इसी मय से दरके हुए पैमाने
आरज़ू लखनवी
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हर नफ़स इक शराब का हो घूँट
ज़िंदगानी हराम है वर्ना
आरज़ू लखनवी
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हर इक शाम कहती है फिर सुब्ह होगी
अँधेरे में सूरज नज़र आ रहा है
आरज़ू लखनवी
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हमारी नाकामी-ए-वफ़ा ने ज़माने की खोल दी हैं आँखें
चराग़ कब का बुझा पड़ा है मगर अंधेरा कहीं नहीं है
आरज़ू लखनवी
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हम को इतना भी रिहाई की ख़ुशी में नहीं होश
टूटी ज़ंजीर कि ख़ुद पाँव हमारा टूटा
आरज़ू लखनवी
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हल्का था नदामत से सरमाया इबादत का
इक क़तरे में बह निकले तस्बीह के सौ दाने
आरज़ू लखनवी
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