रस्ते में उन को छेड़ के खाते हैं गालियाँ
बाज़ार की मिठाई भी होती है क्या लज़ीज़
अरशद अली ख़ान क़लक़
बहार आते ही ज़ख़्म-ए-दिल हरे सब हो गए मेरे
उधर चटका कोई ग़ुंचा इधर टूटा हर इक टाँका
अरशद अली ख़ान क़लक़
दिल ख़स्ता हो तो लुत्फ़ उठे कुछ अपनी ग़ज़ल का
मतलब कोई क्या समझेगा मस्तों की ज़टल का
अरशद अली ख़ान क़लक़
दस्त-ए-जुनूँ ने फाड़ के फेंका इधर-उधर
दामन अबद में है तो गरेबाँ अज़ल में है
अरशद अली ख़ान क़लक़
छेड़ा अगर मिरे दिल-ए-नालाँ को आप ने
फिर भूल जाइएगा बजाना सितार का
अरशद अली ख़ान क़लक़
चला है छोड़ के तन्हा किधर तसव्वुर-ए-यार
शब-ए-फ़िराक़ में था तुझ से मश्ग़ला दिल का
अरशद अली ख़ान क़लक़
बुत-परस्ती में भी भूली न मुझे याद-ए-ख़ुदा
हाथ में सुब्हा गले में मिरे ज़ुन्नार रहा
अरशद अली ख़ान क़लक़
बे-सबब ग़ुंचे चटकते नहीं गुलज़ारों में
फिर रहा है ये ढिंढोरा तिरी रानाई का
अरशद अली ख़ान क़लक़
बे-अब्र रिंद पीते नहीं वाइ'ज़ो शराब
करते हैं ये गुनाह भी रहमत के ज़ोर पर
अरशद अली ख़ान क़लक़