राह-ए-हक़ में खेल जाँ-बाज़ी है ओ ज़ाहिर-परस्त
क्या तमाशा दार पर मंसूर ने नट का किया
अरशद अली ख़ान क़लक़
मिसाल-ए-आइना हम जब से हैरती हैं तिरे
कि जिन दिनों में न था तू सिंगार से वाक़िफ़
अरशद अली ख़ान क़लक़
मुबारक दैर-ओ-का'बा हों 'क़लक़' शैख़-ओ-बरहमन को
बिछाएँगे मुसल्ला चल के हम मेहराब-ए-अबरू में
अरशद अली ख़ान क़लक़
मुझ से उन आँखों को वहशत है मगर मुझ को है इश्क़
खेला करता हूँ शिकार आहु-ए-सहराई का
अरशद अली ख़ान क़लक़
नया मज़मून लाना काटना कोह-ओ-जबल का है
नहीं हम शेर कहते पेशा-ए-फ़र्हाद कहते हैं
अरशद अली ख़ान क़लक़
फँस गया है दाम-ए-काकुल में बुतान-ए-हिन्द के
ताइर-ए-दिल को हमारे राम-दाना चाहिए
अरशद अली ख़ान क़लक़
फिर गया आँखों में उस कान के मोती का ख़याल
गोश-ए-गुल तक न कोई क़तरा-ए-शबनम आया
अरशद अली ख़ान क़लक़
फिर मुझ से इस तरह की न कीजेगा दिल-लगी
ख़ैर इस घड़ी तो आप का मैं कर गया लिहाज़
अरशद अली ख़ान क़लक़
पूछा सबा से उस ने पता कू-ए-यार का
देखो ज़रा शुऊ'र हमारे ग़ुबार का
अरशद अली ख़ान क़लक़