ख़्वाहिशें ख़ून में उतरी हैं सहीफ़ों की तरह
इन किताबों में तिरे हाथ की तहरीर भी है
अख़्तर होशियारपुरी
किसे ख़बर कि गुहर कैसे हाथ आते हैं
समुंदरों से भी गहरी है ख़ामुशी मेरी
अख़्तर होशियारपुरी
किसी से मुझ को गिला क्या कि कुछ कहूँ 'अख़्तर'
कि मेरी ज़ात ही ख़ुद रास्ते का पत्थर है
अख़्तर होशियारपुरी
कुछ इतने हो गए मानूस सन्नाटों से हम 'अख़्तर'
गुज़रती है गिराँ अपनी सदा भी अब तो कानों पर
अख़्तर होशियारपुरी
कुछ मुझे भी यहाँ क़रार नहीं
कुछ तिरा ग़म भी दर-ब-दर है यहाँ
अख़्तर होशियारपुरी
क्या लोग हैं कि दिल की गिरह खोलते नहीं
आँखों से देखते हैं मगर बोलते नहीं
अख़्तर होशियारपुरी
लोग नज़रों को भी पढ़ लेते हैं
अपनी आँखों को झुकाए रखना
अख़्तर होशियारपुरी
मैं अब भी रात गए उस की गूँज सुनता हूँ
वो हर्फ़ कम था बहुत कम मगर सदा था बहुत
अख़्तर होशियारपुरी
मैं अपनी ज़ात की तशरीह करता फिरता था
न जाने फिर कहाँ आवाज़ खो गई मेरी
अख़्तर होशियारपुरी