दश्त-दर-दश्त अक्स-ए-दर है यहाँ
तुम भी आओ कि मेरा घर है यहाँ
फैलती जा रही है सुर्ख़ लकीर
जैसे कोई लहू में तर है यहाँ
धूप से बच के जाएँ और कहाँ
अपनी ज़ात इक घना शजर है यहाँ
वही मिट्टी है सब के चेहरों पर
आइना सब से बा-ख़बर है यहाँ
शाख़-दर-शाख़ एक साया है
चाँद जो है पस-ए-शजर है यहाँ
डूब कर जिस में अपनी थाह मिली
लम्हा लम्हा वही भँवर है यहाँ
पत्थरों में हज़ार चेहरे हैं
हाँ मगर कोई तीशा-गर है यहाँ
कुछ मुझे भी यहाँ क़रार नहीं
कुछ तिरा ग़म भी दर-ब-दर है यहाँ
ज़हर की काट किस से हो 'अख़्तर'
वक़्त का मर्ग-ए-नेश्तर है यहाँ
ग़ज़ल
दश्त-दर-दश्त अक्स-ए-दर है यहाँ
अख़्तर होशियारपुरी