ऐ जलती रुतो गवाह रहना
हम नंगे पाँव चल रहे हैं
अख़्तर होशियारपुरी
'अख़्तर' गुज़रते लम्हों की आहट पे यूँ न चौंक
इस मातमी जुलूस में इक ज़िंदगी भी है
अख़्तर होशियारपुरी
अलमारी में तस्वीरें रखता हूँ
अब बचपन और बुढ़ापा एक हुए
अख़्तर होशियारपुरी
बारहा ठिठका हूँ ख़ुद भी अपना साया देख कर
लोग भी कतराए क्या क्या मुझ को तन्हा देख कर
अख़्तर होशियारपुरी
चमन के रंग-ओ-बू ने इस क़दर धोका दिया मुझ को
कि मैं ने शौक़-ए-गुल-बोसी में काँटों पर ज़बाँ रख दी
अख़्तर होशियारपुरी
देखा है ये परछाईं की दुनिया में कि अक्सर
अपने क़द-ओ-क़ामत से भी कुछ लोग बड़े हैं
अख़्तर होशियारपुरी
धूप की गरमी से ईंटें पक गईं फल पक गए
इक हमारा जिस्म था अख़्तर जो कच्चा रह गया
अख़्तर होशियारपुरी
गुज़रते वक़्त ने क्या क्या न चारा-साज़ी की
वगरना ज़ख़्म जो उस ने दिया था कारी था
अख़्तर होशियारपुरी
हमें ख़बर है कोई हम-सफ़र न था फिर भी
यक़ीं की मंज़िलें तय कीं गुमाँ के होते हुए
अख़्तर होशियारपुरी