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तीरा-रंगों के हुआ हक़ में ये तप करना दवा | शाही शायरी
tira-rangon ke hua haq mein ye tap karna dawa

ग़ज़ल

तीरा-रंगों के हुआ हक़ में ये तप करना दवा

आबरू शाह मुबारक

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तीरा-रंगों के हुआ हक़ में ये तप करना दवा
तीरगी जाती रही चेहरे की और उपची सफ़ा

क्या सबब तेरे बदन के गर्म होने का सजन
आशिक़ों में कौन जलता था गले किस के लगा

तू गले किस के लगे लेकिन किन्ही बे-रहम ने
गर्म देखा होएगा तेरे तईं अँखियाँ मिला

बुल-हवस नापाक की अज़-बस-कि भारी है नज़र
पर्दा-ए-इस्मत में तू अपने तईं उस सीं छुपा

अश्क-ए-गर्म ओ आह-ए-सर्द आशिक़ के तईं वसवास कर
ख़ूब है परहेज़ जब हो मुख़्तलिफ़ आब-ओ-हवा

गर्म-ख़ूई सीं पशेमाँ हो के टुक लाओ अरक़
तप की हालत में पसीना आवना हो है भला

दिल मिरा तावीज़ के जूँ ले के अपने पास रख
तो तुफ़ैल-ए-हज़रत-ए-आशिक़ के हो तुझ कूँ शिफ़ा

तुर्श-गोई छोड़ दे और तल्ख़-गोई तर्क कर
और खाना जो कि हो ख़ुशका तरी सो कर ग़िज़ा

'बू-अली' है नब्ज़-दानी में बुताँ की 'आबरू'
उस का इस फ़न में जो नुस्ख़ा है सो है इक कीमिया