सनम-परस्ती करूँ तर्क क्यूँकर ऐ वाइ'ज़
बुतों का ज़िक्र ख़ुदा की किताब में देखा
आग़ा अकबराबादी
कोई इलाज-ए-ग़म-ए-ज़िंदगी बता वाइज़
सुने हुए जो फ़साने हैं फिर सुना न मुझे
अख़्तर ज़ियाई
उमीद-ए-हूर ने सब कुछ सिखा रक्खा है वाइज़ को
ये हज़रत देखने में सीधे-सादे भोले-भाले हैं
अल्लामा इक़बाल
कहते हैं जिस को जन्नत वो इक झलक है तेरी
सब वाइज़ों की बाक़ी रंगीं-बयानियाँ हैं
अल्ताफ़ हुसैन हाली
न वाइज़ हज्व कर एक दिन दुनिया से जाना है
अरे मुँह साक़ी-ए-कौसर को भी आख़िर दिखाना है
अमीर मीनाई
तेरी मस्जिद में वाइज़ ख़ास हैं औक़ात रहमत के
हमारे मय-कदे में रात दिन रहमत बरसती है
अमीर मीनाई
वाइज़ ओ मोहतसिब का जमघट है
मै-कदा अब तो मै-कदा न रहा
बेखुद बदायुनी