बस एक बार मनाया था जश्न-ए-महरूमी 
फिर उस के बाद कोई इब्तिला नहीं आई
अदा जाफ़री
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            | Mahroomi   |
            | 2 लाइन शायरी   |
    
                                ये भी इक रंग है शायद मिरी महरूमी का 
कोई हँस दे तो मोहब्बत का गुमाँ होता है
ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर
साजन हम से मिले भी लेकिन ऐसे मिले कि हाए 
जैसे सूखे खेत से बादल बिन बरसे उड़ जाए
जमीलुद्दीन आली
इक आबला था सो भी गया ख़ार-ए-ग़म से फट 
तेरी गिरह में क्या दिल-ए-अंदोह-गीं रहा
शाह नसीर

