गुलों को छू के शमीम-ए-दुआ नहीं आई
खुला हुआ था दरीचा सबा नहीं आई
हवा-ए-दश्त अभी तो जुनूँ का मौसम था
कहाँ थे हम तिरी आवाज़-ए-पा नहीं आई
अभी सहीफ़ा-ए-जाँ पर रक़म भी क्या होगा
अभी तो याद भी बे-साख़्ता नहीं आई
हम इतनी दूर कहाँ थे कि फिर पलट न सकें
सवाद-ए-शहर से कोई सदा नहीं आई
सुना है दिल भी नगर था रसा बसा भी था
जला तो आँच भी अहल-ए-वफ़ा नहीं आई
न जाने क़ाफ़िले गुज़रे कि है क़याम अभी
अभी चराग़ बुझाने हवा नहीं आई
बस एक बार मनाया था जश्न-ए-महरूमी
फिर इस के बा'द कोई इब्तिला नहीं आई
हथेलियों के गुलाबों से ख़ून रिसता रहा
मगर वो शोख़ी-ए-रंग-ए-हिना नहीं आई
ग़यूर दिल से न माँगी गई मुराद 'अदा'
बरसने आप ही काली घटा नहीं आई
ग़ज़ल
गुलों को छू के शमीम-ए-दुआ नहीं आई
अदा जाफ़री