बस्तियाँ तू ने ख़लाओं में बसाईं भी तो क्या
दिल के वीरानों को देख इन को भी कुछ आबाद कर
शरीफ़ कुंजाही
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गुलज़ार में वो रुत भी कभी आ के रहेगी
जब कोई कली जौर ख़िज़ाँ के न सहेगी
शरीफ़ कुंजाही
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ग़ुनूदा राहों को तक तक के सोगवार न हो
तिरे क़दम ही मुसाफ़िर इन्हें जगाएँगे
शरीफ़ कुंजाही
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ख़ंदा-ए-मौज मिरी तिश्ना-लबी ने जाना
रेत का तपता हुआ देख के ज़र्रा कोई
शरीफ़ कुंजाही
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तवील रात भी आख़िर को ख़त्म होती है
'शरीफ़' हम न अँधेरों से मात खाएँगे
शरीफ़ कुंजाही
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तू जून की गर्मी से न घबरा कि जहाँ में
ये लू तो हमेशा न रही है न रहेगी
शरीफ़ कुंजाही
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