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अब किसी शाख़ पे हिलता नहीं पत्ता कोई | शाही शायरी
ab kisi shaKH pe hilta nahin patta koi

ग़ज़ल

अब किसी शाख़ पे हिलता नहीं पत्ता कोई

शरीफ़ कुंजाही

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अब किसी शाख़ पे हिलता नहीं पत्ता कोई
दश्त से उम्र हुई गुज़रा न झोंका कोई

लब पे फ़रियाद न है आँख में क़तरा कोई
वादी-ए-शब में नहीं हम-सफ़र अपना कोई

ख़ंदा-ए-मौज मिरी तिश्ना-लबी ने जाना
रेत का तपता हुआ देख के ज़र्रा कोई

जादा-ए-शौक़ पे कल लोग थे आते जाते
अब 'शरीफ़' इस पे मुसाफ़िर नहीं मिलता कोई