हुई मुद्दत कि मैं ने बुत-परस्ती छोड़ दी ज़ाहिद
मगर अब तक गले में देख ले ज़ुन्नार बाक़ी है
शबाब
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ख़त्त-ए-पेशानी में सफ़्फ़ाक अज़ल के दिन से
तेरी तलवार से लिक्खी है शहादत मेरी
शबाब
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मैं तिरे हुस्न का ख़ल्वत में तमाशाई हूँ
आईना सीख न जाए कहीं हैरत मेरी
शबाब
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