अँधेरे को निगलता जा रहा हूँ
दिया हूँ और जलता जा रहा हूँ
सलीम फ़िगार
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कहीं आँखें कहीं बाज़ू कहीं से सर निकल आए
अँधेरा फैलते ही हर तरफ़ से डर निकल आए
सलीम फ़िगार
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लफ़्ज़ ले कर ख़याल की वुसअत
शेर की ताज़गी की सम्त गया
सलीम फ़िगार
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शाख़-दर-शाख़ तिरी याद की हरियाली है
हम ने शादाब बहुत दिल का शजर रक्खा है
सलीम फ़िगार
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वो चाँद टूट गया जिस से रात रौशन थी
चमक रहे थे फ़लक पर जो सब सितारे गए
सलीम फ़िगार
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