जले मकानों में भूत बैठे बड़ी मतानत से सोचते हैं
कि जंगलों से निकल के आने की क्या ज़रूरत थी आदमी को
प्रकाश फ़िक्री
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जिधर देखो लहू बिखरा हुआ है
निशाना कौन गोली का बना है
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लर्ज़ां है किसी ख़ौफ़ से जो शाम का चेहरा
आँखों में कोई ख़्वाब पिरोने नहीं देता
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मुर्दा पड़े थे लोग घरों की पनाह में
दरिया वफ़ूर-ए-ग़ैज़ से बिफरा था चार सू
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यूँ तो अपनों सा कुछ नहीं इस में
फिर भी ग़ैरों से वो अलग सा है
प्रकाश फ़िक्री
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