बुलंद आवाज़ से घड़ियाल कहता है कि ऐ ग़ाफ़िल
कटी ये भी घड़ी तुझ उम्र से और तू नहीं चेता
नाजी शाकिर
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न सैर-ए-बाग़ न मिलना न मीठी बातें हैं
ये दिन बहार के ऐ जान मुफ़्त जाते हैं
नाजी शाकिर
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सिवाए गुल के वो शोख़ अँखियाँ किसी तरफ़ को नहीं हैं राग़िब
तो बर्ग-ए-नर्गिस उपर बजा है लिखूँ जो अपने सजन कूँ पतियाँ
नाजी शाकिर
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उस के रुख़्सार देख जीता हूँ
आरज़ी मेरी ज़िंदगानी है
नाजी शाकिर
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ज़ुल्फ़ क्यूँ खोलते हो दिन को सनम
मुख दिखाया है तो न रात करो
नाजी शाकिर
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