आज क्या जाने वो क्यूँ आराम-ए-जाँ आया नहीं
हर्फ़-ए-रंजिश कल तो कोई दरमियाँ आया नहीं
मिर्ज़ा अली लुत्फ़
बैठ कर मस्जिद में रिंदों से न इतना बिगड़ए
शैख़-जी आते हो मयख़ाने के भी अक्सर तरफ़
मिर्ज़ा अली लुत्फ़
बेगानों ने कभी न वो कानों सुनाई बात
अफ़्सोस आश्ना ने जो आँखों दिखाई बात
मिर्ज़ा अली लुत्फ़
देर तक ज़ब्त-ए-सुख़न कल उस में और हम में रहा
बोल उठे घबरा के जब आख़िर के तईं दम रुक गए
मिर्ज़ा अली लुत्फ़
हम और फ़रहाद बहर-ए-इश्क़ में बाहम ही कूदे थे
जो उस के सर से गुज़रा आब मेरी ता-कमर आया
मिर्ज़ा अली लुत्फ़
हुआ आवारा हिन्दोस्ताँ से 'लुत्फ' आगे ख़ुदा जाने
दकन के साँवलों ने मारा या इंगलन के गोरों ने
मिर्ज़ा अली लुत्फ़
इधर से जितनी यगानगत की उधर से उतनी हुई जुदाई
बढ़ाई थोड़ी सी जब इधर से बहुत सी तुम ने उधर घटाई
मिर्ज़ा अली लुत्फ़
खुल गया अब ये कि वस्ल उस का ख़याल-ए-ख़ाम है
आज उम्मीदों का दिल ही दिल में क़त्ल-ए-आम है
मिर्ज़ा अली लुत्फ़
किस को बहलाते हो शीशे का गुलू टूट गया
ख़ुम मिरे मुँह से लगा दो जो सुबू टूट गया
मिर्ज़ा अली लुत्फ़