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मिर्ज़ा जवाँ बख़्त जहाँदार शायरी | शाही शायरी

मिर्ज़ा जवाँ बख़्त जहाँदार शेर

8 शेर

आख़िर गिल अपनी सर्फ़-ए-दर-ए-मय-कदा हुई
पहुँची वहीं पे ख़ाक जहाँ का ख़मीर था

मिर्ज़ा जवाँ बख़्त जहाँदार




बसान-ए-नक़्श-ए-क़दम तेरे दर से अहल-ए-वफ़ा
उठाते सर नहीं हरगिज़ तबाह के मारे

मिर्ज़ा जवाँ बख़्त जहाँदार




कहें सो किस से 'जहाँदार' उस की नज़रों में
रक़ीब काम के ठहरे और हम हैं ना-कारे

मिर्ज़ा जवाँ बख़्त जहाँदार




की दिल ने दिल-बरान-ए-जहाँ की बहुत तलाश
कुइ दिल-रुबा मिला है न दिल-ख़्वाह क्या करे

मिर्ज़ा जवाँ बख़्त जहाँदार




मिरा ख़ून-ए-दिल यूँ बहा दश्त में
कि जंगल में लोहू के थाले पड़े

मिर्ज़ा जवाँ बख़्त जहाँदार




मुझ दिल में है जो बुत की परस्तिश की आरज़ू
देखी नहीं वो आज तिलक बरहमन के बीच

मिर्ज़ा जवाँ बख़्त जहाँदार




सर-रिश्ता कुफ़्र-ओ-दीं का हक़ीक़त में एक है
जो तार-ए-सुब्हा है सो है ज़ुन्नार देखना

मिर्ज़ा जवाँ बख़्त जहाँदार




तिरे इश्क़ से जब से पाले पड़े हैं
हमें अपने जीने के लाले पड़े हैं

मिर्ज़ा जवाँ बख़्त जहाँदार