अहल-ए-ईमाँ 'सोज़' को कहते हैं काफ़िर हो गया
आह या रब राज़-ए-दिल इन पर भी ज़ाहिर हो गया
मीर सोज़
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एक आफ़त से तो मर मर के हुआ था जीना
पड़ गई और ये कैसी मिरे अल्लाह नई
मीर सोज़
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जिस का तुझ सा हबीब होवेगा
कौन उस का रक़ीब होवेगा
मीर सोज़
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परकार की रविश फिरे हम जितने चल सके
इस गर्दिश-ए-फ़लक से न बाहर निकल सके
मीर सोज़
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रुस्वा हुआ ख़राब हुआ मुब्तला हुआ
वो कौन सी घड़ी थी कि तुझ से जुदा हुआ
मीर सोज़
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सर ज़ानू पे हो उस के और जान निकल जाए
मरना तो मुसल्लम है अरमान निकल जाए
मीर सोज़
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उन से और मुझ से यही शर्त-ए-वफ़ा ठहरी है
वो सितम ढाएँ मगर उन को सितम-गर न कहूँ
मीर सोज़
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