EN اردو
मज़हर मिर्ज़ा जान-ए-जानाँ शायरी | शाही शायरी

मज़हर मिर्ज़ा जान-ए-जानाँ शेर

7 शेर

हम गिरफ़्तारों को अब क्या काम है गुलशन से लेक
जी निकल जाता है जब सुनते हैं आती है बहार

मज़हर मिर्ज़ा जान-ए-जानाँ




इतनी फ़ुर्सत दे कि रुख़्सत हो लें ऐ सय्याद हम
मुद्दतों इस बाग़ के साये में थे आज़ाद हम

मज़हर मिर्ज़ा जान-ए-जानाँ




जो तू ने की सो दुश्मन भी नहीं दुश्मन से करता है
ग़लत था जानते थे तुझ को जो हम मेहरबाँ अपना

मज़हर मिर्ज़ा जान-ए-जानाँ




ख़ुदा के वास्ते इस को न टोको
यही इक शहर में क़ातिल रहा है

मज़हर मिर्ज़ा जान-ए-जानाँ




रुस्वा अगर न करना था आलम में यूँ मुझे
ऐसी निगाह-ए-नाज़ से देखा था क्यूँ मुझे

मज़हर मिर्ज़ा जान-ए-जानाँ




उस गुल को भेजना है मुझे ख़त सबा के हाथ
इस वास्ते लगा हूँ चमन की हवा के हाथ

मज़हर मिर्ज़ा जान-ए-जानाँ




ये हसरत रह गई क्या क्या मज़े से ज़िंदगी करते
अगर होता चमन अपना गुल अपना बाग़बाँ अपना

मज़हर मिर्ज़ा जान-ए-जानाँ