EN اردو
न तू मिलने के अब क़ाबिल रहा है | शाही शायरी
na tu milne ke ab qabil raha hai

ग़ज़ल

न तू मिलने के अब क़ाबिल रहा है

मज़हर मिर्ज़ा जान-ए-जानाँ

;

न तू मिलने के अब क़ाबिल रहा है
न मुज को वो दिमाग़ ओ दिल रहा है

ये दिल कब इश्क़ के क़ाबिल रहा है
कहाँ इस को दिमाग़ ओ दिल रहा है

ख़ुदा के वास्ते इस को न टोको
यही इक शहर में क़ातिल रहा है

नहीं आता इसे तकिया पे आराम
ये सर पाँव से तेरे हिल रहा है