दरख़्त हाथ हिलाते थे रहनुमाई को
मुसाफिरों ने तो कुछ भी नहीं कहा मुझ से
इक़बाल अशहर कुरेशी
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जो लोग लौट के ख़ुद मेरे पास आए हैं
वो पूछते हैं कि 'अशहर' यहीं पे अब तक हो
इक़बाल अशहर कुरेशी
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ख़ुद को जब भूल से जाते हैं तो यूँ लगता है
ज़िंदगी तेरे अज़ाबों से निकल आए हैं
इक़बाल अशहर कुरेशी
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