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फ़रार पा न सका कोई रास्ता मुझ से | शाही शायरी
farar pa na saka koi rasta mujhse

ग़ज़ल

फ़रार पा न सका कोई रास्ता मुझ से

इक़बाल अशहर कुरेशी

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फ़रार पा न सका कोई रास्ता मुझ से
हज़ार बार मिरा सामना हुआ मुझ से

दरख़्त हाथ हिलाते थे रहनुमाई को
मुसाफिरों ने तो कुछ भी नहीं कहा मुझ से

ये बे-हुनर भी नहीं साथ भी नहीं देते
न जाने है मिरे हाथों को बैर क्या मुझ से

मैं लौटने के तसव्वुर से ख़ौफ़ खाता हूँ
लिपट न जाएँ कहीं मेरे नक़्श-ए-पा मुझ से

हज़ार बार जनम भी लिया तो क्या 'अशहर'
मिरा वजूद बिछड़ता चला गया मुझ से