आसमाँ कहते हैं जिस को वो ज़मीन-ए-शेर है
माह-ए-नौ मिस्रा है वस्फ़-ए-अबरू-ए-ख़मदार में
गोया फ़क़ीर मोहम्मद
ऐ जुनूँ हाथ जो वो ज़ुल्फ़ न आई होती
आह ने अर्श की ज़ंजीर हिलाई होती
गोया फ़क़ीर मोहम्मद
अपने सिवा नहीं है कोई अपना आश्ना
दरिया की तरह आप हैं अपने कनार में
गोया फ़क़ीर मोहम्मद
बिजली चमकी तो अब्र रोया
याद आ गई क्या हँसी किसी की
गोया फ़क़ीर मोहम्मद
दर पे नालाँ जो हूँ तो कहता है
पूछो क्या चीज़ बेचता है ये
गोया फ़क़ीर मोहम्मद
दिमाग़ और ही पाती हैं इन हसीनों में
ये माह वो हैं नज़र आएँ जो महीनों में
गोया फ़क़ीर मोहम्मद
गर हमारे क़त्ल के मज़मूँ का वो नामा लिखे
बैज़ा-ए-फ़ौलाद से निकलें कबूतर सैकड़ों
गोया फ़क़ीर मोहम्मद
गया है कूचा-ए-काकुल में अब दिल
मुसलमाँ वारिद-ए-हिन्दोस्ताँ है
गोया फ़क़ीर मोहम्मद
हर गाम पे ही साए से इक मिस्रा-ए-मौज़ूँ
गर चंद क़दम चलिए तो क्या ख़ूब ग़ज़ल हो
गोया फ़क़ीर मोहम्मद