गर हमारे क़त्ल के मज़मूँ का वो नामा लिखे
बैज़ा-ए-फ़ौलाद से निकलें कबूतर सैकड़ों
गोया फ़क़ीर मोहम्मद
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दिमाग़ और ही पाती हैं इन हसीनों में
ये माह वो हैं नज़र आएँ जो महीनों में
गोया फ़क़ीर मोहम्मद
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दर पे नालाँ जो हूँ तो कहता है
पूछो क्या चीज़ बेचता है ये
गोया फ़क़ीर मोहम्मद
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बिजली चमकी तो अब्र रोया
याद आ गई क्या हँसी किसी की
गोया फ़क़ीर मोहम्मद
अपने सिवा नहीं है कोई अपना आश्ना
दरिया की तरह आप हैं अपने कनार में
गोया फ़क़ीर मोहम्मद
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ऐ जुनूँ हाथ जो वो ज़ुल्फ़ न आई होती
आह ने अर्श की ज़ंजीर हिलाई होती
गोया फ़क़ीर मोहम्मद
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