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एहतराम इस्लाम शायरी | शाही शायरी

एहतराम इस्लाम शेर

8 शेर

अहल-ए-दुनिया से मुझे तो कोई अंदेशा न था
नाम तेरा किस लिए मिरे लबों पर जम गया

एहतराम इस्लाम




इस बार भी शोलों ने मचा डाली तबाही
इस बार भी शोलों को हवा दी गई शायद

एहतराम इस्लाम




लड़खड़ा कर गिर पड़ी ऊँची इमारत दफ़अतन
दफ़अतन तामीर की कुर्सी पे खंडर जम गया

एहतराम इस्लाम




साथ रखिए काम आएगा बहुत नाम-ए-ख़ुदा
ख़ौफ़ गर जागा तो फिर किस को सदा दी जाएगी

एहतराम इस्लाम




शेर के रूप में देते रहना
'एहतिराम' अपनी ख़बर आगे भी

एहतराम इस्लाम




तौक़ीर अँधेरों की बढ़ा दी गई शायद
इक शम्अ जो रौशन थी बुझा दी गई शायद

एहतराम इस्लाम




उसी से मुझ को मिला इश्तियाक़ मंज़िल का
मिरे सफ़र को फ़ज़ा-ए-सफ़र उसी से मिली

एहतराम इस्लाम




याद था 'सुक़रात' का क़िस्सा सभी को 'एहतिराम'
सोचिए ऐसे में बढ़ कर सच को सच कहता तो कौन

एहतराम इस्लाम