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ज़िंदगी | शाही शायरी
zindagi

नज़्म

ज़िंदगी

कैफ़ी आज़मी

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आज अँधेरा मिरी नस नस में उतर जाएगा
आँखें बुझ जाएँगी बुझ जाएँगे एहसास ओ शुऊर

और ये सदियों से जलता सा सुलगता सा वजूद
इस से पहले कि सहर माथे पे शबनम छिड़के

इस से पहले कि मिरी बेटी के वो फूल से हाथ
गर्म रुख़्सार को ठंडक बख़्शें

इस से पहले कि मिरे बेटे का मज़बूत बदन
तन-ए-मफ़्लूज में शक्ति भर दे

इस से पहले कि मिरी बीवी के होंट
मेरे होंटों की तपिश पी जाएँ

राख हो जाएगा जलते जलते
और फिर राख बिखर जाएगी

ज़िंदगी कहने को बे-माया सही
ग़म का सरमाया सही

मैं ने इस के लिए क्या क्या न किया
कभी आसानी से इक साँस भी यमराज को अपना न दिया

आज से पहले बहुत पहले
इसी आँगन में

धूप-भरे दामन में
मैं खड़ा था मिरे तलवों से धुआँ उठता था

एक बे-नाम सा बे-रंग सा ख़ौफ़
कच्चे एहसास पे छाया था कि जल जाऊँगा

मैं पिघल जाऊँगा
और पिघल कर मिरा कमज़ोर सा ''मैं''

क़तरा क़तरा मिरे माथे से टपक जाएगा
रो रहा था मगर अश्कों के बग़ैर

चीख़ता था मगर आवाज़ न थी
मौत लहराती थी सौ शक्लों में

मैं ने हर शक्ल को घबरा के ख़ुदा मान लिया
काट के रख दिए संदल के पुर-असरार दरख़्त

और पत्थर से निकाला शोला
और रौशन किया अपने से बड़ा एक अलाव

जानवर ज़ब्ह किए इतने कि ख़ूँ की लहरें
पाँव से उठ के कमर तक आईं

और कमर से मिरे सर तक आईं
सोम-रस मैं ने पिया

रात दिन रक़्स किया
नाचते नाचते तलवे मिरे ख़ूँ देने लगे

मिरे आज़ा की थकन
बन गई काँपते होंटों पे भजन

हड्डियाँ मेरी चटख़ने लगीं ईंधन की तरह
मंतर होंटों से टपकने लगे रोग़न की तरह

''अग्नी माता मिरी अग्नी माता
सूखी लकड़ी के ये भारी कुन्दे

जो तिरी भेंट को ले आया हूँ
उन को स्वीकार कर और ऐसे धधक

कि मचलते शोले खींच लें जोश में
सूरज की सुनहरी ज़ुल्फ़ें

आग में आग मिले
जो अमर कर दे मुझे

ऐसा कोई राग मिले''
अग्नी माँ से भी न जीने की सनद जब पाई

ज़िंदगी के नए इम्कान ने ली अंगड़ाई
और कानों में कहीं दूर से आवाज़ आई

बुद्धम् शरणम् गच्छामि
धम्मम् शरणम् गच्छामि

संघम् शरणम् गच्छामि
चार अबरू का सफ़ाया कर के

बे-सिले वस्त्र से ढाँपा ये बदन
पोंछ के पत्नी के माथे से दमकती बिंदिया

सोते बच्चों को बिना प्यार किए
चल पड़ा हाथ में कश्कोल लिए

चाहता था कहीं भिक्शा ही में जीवन मिल जाए
जो कभी बंद न हो दिल को वो धड़कन मिल जाए

मुझ को भिक्शा में मगर ज़हर मिला
होंट थर्राने लगे जैसे करे कोई गिला

झुक के सूली से उसी वक़्त किसी ने ये कहा
तेरे इक गाल पे जिस पल कोई थप्पड़ मारे

दूसरा गाल भी आगे कर दे
तेरी दुनिया में बहुत हिंसा है

उस के सीने में अहिंसा भर दे
कि ये जीने का तरीक़ा भी है अंदाज़ भी है

तेरी आवाज़ भी है मेरी आवाज़ भी है
मैं उठा जिस को अहिंसा का सबक़ सिखलाने

मुझ को लटका दिया सूली पे उसी दुनिया ने
आ रहा था मैं कई कूचों से ठोकर खा कर

एक आवाज़ ने रोका मुझ को
किसी मीनार से नीचे आ कर

अल्लाहु-अकबर अल्लाहु-अकबर
हुआ दिल को ये गुमाँ

कि ये पुर-जोश अज़ाँ
मौत से देगी अमाँ

फिर तो पहुँचा मैं जहाँ
मैं ने दोहराई कुछ ऐसे ये अज़ाँ

गूँज उठा सारा जहाँ
अल्लाहु-अकबर अल्लाहु-अकबर

इसी आवाज़ में इक और भी गूँजा एलान
कुल्लो-मन-अलैहा-फ़ान

इक तरफ़ ढल गया ख़ुर्शीद-ए-जहाँ-ताब का सर
हुआ फ़ालिज का असर

फट गई नस कोई शिरयानों में ख़ूँ जम सा गया
हो गया ज़ख़्मी दिमाग़

ऐसा लगता था कि बुझ जाएगा जलता है जो सदियों से चराग़
आज अँधेरा मिरी नस नस में उतर जाएगा

ये समुंदर जो बड़ी देर से तूफ़ानी था
ऐसा तड़पा कि मिरे कमरे के अंदर आया

आते आते वो मिरे वास्ते अमृत लाया
और लहरा के कहा

शिव ने ये भेजवाया है लो पियो और
आज शिव इल्म है अमृत है अमल

अब वो आसाँ है जो दुश्वार था कल
रात जो मौत का पैग़ाम लिए आई थी

बीवी बच्चों ने मिरे
उस को खिड़की से परे फेंक दिया

और जो वो ज़हर का इक जाम लिए आई थी
उस ने वो ख़ुद ही पिया

सुब्ह उतरी जो समुंदर में नहाने के लिए
रात की लाश मिली पानी में