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ज़ात के रोग में | शाही शायरी
zat ke rog mein

नज़्म

ज़ात के रोग में

वज़ीर आग़ा

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तब वो बे-साख़्ता रो पड़े सीना-कूबी करे
जाने वाले का मातम करे

बैन करते फिरे
आख़िरी पात के सोग में

तिलमिलाती रहे
ज़ात के रोग में

फिर वो रुत आए जब
चिकनी काई-ज़दा सी चट्टानों पे देखूँ मैं ख़ुद को

मैं आँखों के पानी को रोकूँ मगर पानी कैसे रुके
तब मैं चीख़ूँ बुलाऊँ उसे

गहरे नीले समुंदर की तह में वो होगी कहीं कौन जाने
मगर वो बुलावे को सुन कर समुंदर की तह से उभर कर

मिरे पास आए मुझे छू के देखे
कहे तुम कहाँ थे

ख़ुदारा बताओ कि तुम इतना अर्सा कहाँ थे
मुझे ख़ुद से लिपटाए महकी हुई गोद में ले के झूला झुलाए

कोई गीत गाए जो सय्याल चाँदी का चश्मा सा बन कर बहे
धुँद बन कर उड़े

मुझ को सूरज की गंदी तमाज़त से महफ़ूज़ कर दे
कहे अब तो जाने न दूँगी तुम्हें

अब मैं जाने न दूँगी तुम्हें
और मैं

अपने बोझल पपोटों को मीचे
किसी नर्म झोंके के क़दमों की आहट सुनूँ

तंग होते हुए दूधिया बाज़ुओं के
मुलाएम से हल्क़े में सोने लगूँ

काश सोने लगूँ
काश मैं सो सकूँ