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ये तमाशा-गह-ए-आलम क्या है | शाही शायरी
ye tamasha-e-gah-e-alam kya hai

नज़्म

ये तमाशा-गह-ए-आलम क्या है

तसद्द्क़ हुसैन ख़ालिद

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तुम चमन-ज़ाद हो फ़ितरत के क़रीं रहते हो
दिल ये कहता है कि तुम महरम-ए-असरार भी हो

तुम्हें फ़ितरत की बहारों की क़सम
ये तमाशा-गह-ए-आलम क्या है

नूर-ए-ख़ुर्शीद का जाँ-सोज़ जहाँ-ताब जमाल
आसमानों पे सितारों का सुबुक-काम ख़िराम

ये गरजते हुए बादल
ये समुंदर का ख़रोश

ये परिंदों के सुहाने नग़्मे
कहीं बढ़ती हुई अज़्मत कहीं लुटता हुआ हुस्न

बे-सबब बुख़्ल फ़रावाँ-बख़्शी
क़हत आलाम मसाइब के पहाड़

ऐश के ख़ुसरवी-ओ-तंतना-ए-फ़ग़फूरी
कहीं परवेज़ के हीले कहीं चंगेज़ के ज़ुल्म

कहीं शब्बीरी-ओ-इब्राहीमी
राज़ ही राज़ है हैरत-कदा-ए-बज़्म-ए-नुमूद

तुम चमन-ज़ाद हो फ़ितरत के क़रीं रहते हो
ये तमाशा-गह-ए-आलम क्या है

नूर-ए-महताब की चादर ले कर
घास सोती ही रही

फूल लब बंद रहे
पेड़ रहे महव-ए-सुकूत

तुंद-रौ बाद-ए-शुमाली का तरीड़ा आया
फूल त्योरा से गए

पेड़ हुए सर-ब-सुजूद
घास ने चादर-ए-महताब में करवट बदली

ये तमाशा-गह-ए-आलम क्या है