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ये सजीली मूर्ती | शाही शायरी
ye sajili murti

नज़्म

ये सजीली मूर्ती

रफ़ीक़ संदेलवी

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ऐ हवा
फिर से मुझे छू कर क़सम खा

सेहन में किस ने क़दम रक्खा था
चुपके से

यहाँ से कौन मिट्टी ले गया था
वक़्त की थाली में

किस ने ला के रख दी
झिलमिलाती लौ के आगे

रक़्स करती
ये सजीली मूर्ती

जिस के नुक़ूश-ए-जिस्म
रौशन हो रहे हैं

वेश्या के होंट
फ़र्बा पाँव जैसे इक गृहस्तन के

ख़मीरी पेट में
मख़मल की लहरें

नूरी व नारी
सुबुक-अंदाम लहरों में

भँवर इक गोल सा
फिर से मुझे छू कर क़सम खा

ऐ हवा
तू जानती है

राज़ सारा
दो अलग तर्ज़ों की मिट्टी

एक बर्तन में मिला कर
गूँधने का!!