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वो किताब | शाही शायरी
wo kitab

नज़्म

वो किताब

ज़ेहरा निगाह

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मिरी ज़िंदगी की लिखी हुई
मिरे ताक़-ए-दिल पे सजी हुई

वो किताब अब भी है मुंतज़िर
जिसे मैं कभी नहीं पढ़ सकी

वो तमाम बाब सभी वरक़
हैं अभी तलक भी जुड़े हुए

मिरा अहद-ए-दीद भी आज तक
उन्हें वो जुदाई न दे सका

जो हर इक किताब की रूह है
मुझे ख़ौफ़ है कि किताब में

मिरे रोज़-ओ-शब की अज़िय्यतें
वो नदामतें वो मलामतें

किसी हाशिए पे रक़म न हों
मैं फ़रेब-ख़ुर्दा-ए-बरतरी

मैं असीर-ए-हल्क़ा-ए-बुज़-दिली
वो किताब कैसे पढ़ूँगी मैं?