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वीराना-ए-ख़याल | शाही शायरी
virana-e-KHayal

नज़्म

वीराना-ए-ख़याल

इफ़्तिख़ार आज़मी

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दश्त-ए-गर्म-ओ-सर्द में ये बे-दयारों का हुजूम
बे-ख़बर माहौल से

चुप-चाप
ख़ुद से हम-कलाम

चल रहा है सर झुकाए इस तरह
जिस तरह मरघट पे रूहों का ख़िराम

ज़र्द चेहरों पर है सदियों की थकन
साँस लेते हैं कुछ ऐसे

जैसे होती हो चुभन
होंट पर ग़मगीं तबस्सुम और सीने में बुका

हर क़दम पर हड्डियों के कड़कड़ाने की सदा
उन की आँखें

जिन पे हुक्म-ए-दीदा-ए-बीना लगाते हैं
देवताओं की बसीरत काँप जाए

ज़ेहन ओ दिल का फ़ासला तय करते करते हाँप जाए
वुसअत-ए-अर्ज़-ओ-समा इक दीदा-ए-हैरान है

उफ़! ये मेला किस क़दर वीरान है!!