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उस के नाम जिसे तारीकी निगल चुकी | शाही शायरी
uske nam jise tariki nigal chuki

नज़्म

उस के नाम जिसे तारीकी निगल चुकी

इंजिला हमेश

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कौन पढ़ सकता है बातिन को
कौन छू सकता है आँखों की वीरानी को

कौन दीवारों पे मरती धूप को अपने अंदर उतार सकता है
जब हवास कोढ़-ज़दा हो जाएँ

तब जुदाई के ज़ख़्म से मन अजनबी हो जाता है
वो मेरी आवाज़ के लम्स से बहुत दूर है

वो कौन सी बंजर ज़मीन है
जहाँ मेरे किसी एहसास किसी कैफ़ियत की रसाई नहीं होती

बे-तहाशा चीख़ मेरे अंदर जम्अ' है
मोहब्बत किस किस तरह से मज़ाक़ बनती है

ख़ुदा ने हर बार मेरे दिल को आज़माया
ये मेरी ख़ुद-कलामी है जो मुझे ज़िंदा रखे हुए है

वर्ना मुझे मारने वालों ने
मेरा अम्न ख़ाली कर दिया था

उस ने ख़ामोशी को अपना हथियार बनाया
और उस हथियार से

फ़रियाद करने वाले की रूह को ज़ख़्मी कर दिया
वो जानता है

तशद्दुद किस किस तरह से किया जा सकता है
वो बे-ज़ार हो गया उस आवाज़ से

वो बे-ज़ार हो गया उस आवाज़ से
जो रोक रही थी उसे अँधेरों में जाने से

अफ़्सोस
वो खो गया

उसे तारीकी निगल चुकी है