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तुम्हारी आँखें शरारती हैं | शाही शायरी
tumhaari aankhen shararti hain

नज़्म

तुम्हारी आँखें शरारती हैं

मुज़फ़्फ़र वारसी

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तुम्हारी आँखें शरारती हैं
तुम अपने पीछे छुपे हुए हो

बग़ौर देखूँ तुम्हें तो मुझ को
शरारतों पर उभारती हैं

तुम्हारी आँखें शरारती हैं
लहू को शोला-ब-दस्त कर दें

ये पत्थरों को भी मस्त कर दें
हयात की सूखती रुतों में

बहार का बंद-ओ-बस्त कर दें
कभी गुलाबी कभी सुनहरी

समुंदरों से ज़ियादा गहरी
तहों में अपनी उतारती हैं

तुम्हारी आँखें शरारती हैं
हया भी है उन में शोख़ियाँ भी

ये राज़ भी अपनी तर्जुमाँ भी
रियासत-ए-हुस्न-ओ-इश्क़ की हैं

रेआया भी और हुक्मराँ भी
वो खो गया ये मिली हैं जिस को

ये जीतना चाहती है जिस को
उसी से दर-असल हारती हैं

तुम्हारी आँखें शरारती हैं
कशिश का वो दायरा बनाएँ

हवास जिस से निकल न पाएँ
मैं अपने अंदर बिखर सा जाऊँ

समेटने भी न मुझ को आएँ
अजब है अंजान-पन भी उन का

मैं उन का और मेरा फ़न भी उन का
ख़मोश रह कर पुकारती हैं

तुम्हारी आँखें शरारती हैं