मुद्दतों बा'द आई हो तुम
और तुम्हें इतनी फ़ुर्सत कहाँ
अन-कहे हर्फ़ भी सुन सको
आरज़ू की वो तहरीर भी पढ़ सको
जो अभी तक लिखी ही नहीं जा सकी
इतनी मोहलत कहाँ
मेरे बाग़ों में जो खिल न पाए अभी
उन शगूफ़ों की बातें करो
दर्द ही बाँट लो
मेरे किन माहताबों से तुम मिल सकीं
कितनी आँखों के ख़्वाबों से तुम मिल सकीं
हाँ तुम्हारी निगाह-ए-सताइश ने
घर की सब आराइशें देख लीं
तन की आसाइशें देख लीं
मेरे दिल में जो पैकाँ तराज़ू हुए
तुम को भी
लाला-ओ-गुल के बे-साख़्ता इस्तिआ'रे लगे
नज़्म
तुम भी
अदा जाफ़री