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तुफ़ैली सय्यारा | शाही शायरी
tufaili sayyara

नज़्म

तुफ़ैली सय्यारा

सरशार सिद्दीक़ी

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वो इक लम्हा जिस की तलाश में
मैं ने अपने अर्ज़-ओ-समा की

पुर-असरार कशिश से निकल कर
एक ख़याल-अफ़रोज़ ख़ला में जस्त लगा दी

और अपने मेहवर से बिछड़ कर
इस बे चेहरा काहकशाँ के

दूसरे सय्यारों के असर में
गर्दिश करने और भटकते रहने में

इक उम्र गँवा दी
वो लम्हा इक जुगनू बन कर

जलता बुझता
अब भी मिरी उम्मीदों की

ख़ुश-फ़हम निगाहों की ज़द पर है
रौशनी की रफ़्तार से मैं मसरूफ़-ए-सफ़र हूँ

फिर भी मिरी रौशन आँखों से
इस सीमाब सिफ़त जुगनू का

फ़ासला एक ही हद पर है
और अब शायद

वक़्त तो साकित होने की सरहद पर है
मेरे वजूद पे

इक बे-नाम थकन तारी है
लेकिन फिर भी

मेरा तआ'क़ुब जारी है