रोज़ आधी रात को
इक तिलिस्मी ग़ार के
ख़ुफ़िया दरवाज़े के सीने में जनम लेती हैं ग़ैबी धड़कनें
ग़ार की गहराई में
चलते हुए संगीत के क़दमों की चाप
रात की अंधी हवा का हाथ पकड़े दूर तक जाती है साथ
एक ज़हरी साँप
खिंच आता है सर की चाह में
लाख ख़तरे हैं ज़रा सी राह में
बंद दरवाज़े के पास
नर्म भीनी घास में
बैठ जाता है वो कुंडली मार के
और अपना फन उठाए
झूमता रहता है सर की तान पर
खेलता रहता है अपनी जान पर
टूटता है जिस घड़ी सर का बहाओ
साँप को आता है ताओ
बंद दरवाज़े पे ग़ुस्सा में पटकता है वो सर
और डस लेता है उस को अपना ज़हरी फन उठा कर
सुब्ह होने तक तो मर जाता है दरवाज़ा
मगर
रोज़ आधी रात को
नज़्म
तिलिस्मी ग़ार का दरवाज़ा
आदिल मंसूरी