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तीन शराबी | शाही शायरी
tin sharabi

नज़्म

तीन शराबी

अली सरदार जाफ़री

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ज़िक्र नहीं ये फ़र्ज़ानों का
क़िस्सा है इक दीवानों का

मास्को, पैरिस और लंदन में
देखे मैं ने तीन शराबी

सुर्ख़ थीं आँखें रूह गुलाबी
नश्शा-ए-मय का ताज जबीं पर

फ़िक्र फ़लक पर पाँव ज़मीं पर
बे-ख़बर अपनी लग़्ज़िश-ए-पा से

बा-ख़बर अपने अहद-ए-वफ़ा से
दुख़्तर-ए-रज़ के दर के भिकारी

अपने क़ल्ब ओ नज़र के शिकारी
पी लेने के बाद भी प्यासे

जाम की सूरत छलके छलके
अब्र की सूरत हल्के हल्के

मस्ती की तलवार उठाए
फ़स्ल-ए-गुल चेहरों पे खिलाए

क़दम क़दम पर बहक रहे थे
महक रहे थे चहक रहे थे

एक ने शायद व्हिस्की पी थी
दूसरे ने शैम्पेन की बोतल

तीसरे ने वो पिघली चाँदी
वोदका की सय्याल हसीना

वो शय जिस की ताबिश-ए-रुख़ से
शीशे को आ जाए पसीना

मैं ने उन नाज़ुक लम्हों में
रूह-ए-बशर को उर्यां देखा

अहद-ए-ख़िज़ाँ का रंग-ए-परीदा
रंग-ए-अहद-ए-बहाराँ देखा

ज़ाहिर देखा पिन्हाँ देखा
ज़िक्र नहीं ये फ़र्ज़ानों का

क़िस्सा है इक दीवानों का
रात ने अपनी काली ज़बाँ से

ख़ून शफ़क़ के दिल का चाटा
चार तरफ़ ख़ामोशी छाई

फैल गया हर-सू सन्नाटा
जन्नत-ए-पैरिस के पहलू में

सेन की मौजों को नींद आई
डसने लगी मुझ को तन्हाई

मय-ख़ाने में जा कर मैं ने
आग से दिल की प्यास बुझाई

रिंद बहुत थे लेकिन वो सब
अपने नशे में खोए हुए थे

जाग रही थीं आँखें लेकिन
दिल तो सब के सोए हुए थे

कोई नहीं था उन में मेरा
में ये बैठा सोच रहा था

कब ये ज़ालिम रात कटेगी
कब वापस आएगा सवेरा

इतने में इक क़ामत-ए-राना
क़दम क़दम पर फूल खिलाता

होंटों से मासूम तबस्सुम
आँखों से बिजली बरसाता

मय-ख़ाने में झूम के आया
नाज़ ओ अदा के दाम बिछाता

ऐश ओ तरब की महबूबाएँ
नश्शा-ए-मय की दोशीज़ाएँ

रह गईं अपनी आँखें मल कर
आई क़यामत चाल में ढल कर

सिक्कों की झंकार पे गाती
सोने की तलवार नचाती

अपने लहू में आप नहाती
इस नाज़ुक लम्हे में मैं ने

हिर्स-ओ-हवस को रक़्साँ देखा
ज़द में निज़ाम-ए-ज़रदारी की

रूह-ए-बशर को लर्ज़ां देखा
मजबूरी को उर्यां देखा

ज़िक्र नहीं ये फ़र्ज़ानों का
क़िस्सा है इक दीवानों का

गहरे कोहरे की लहरों में
सारा लंदन डूब गया था

लम्हों की रौशन आँखों में
शाम का काजल फैल चुका था

रात की नीली देवी जागी
दिन के देवता को नींद आई

डसने लगी मुझ को तन्हाई
मय-ख़ाने में जा कर मैं ने

आग से दिल की प्यास बुझाई
उस महफ़िल में सब ही कुछ था

साक़ी भी और पीर-ए-मुग़ाँ भी
सहबा की आग़ोश के पाले

तिफ़्लक-ए-मस्ती, रिन्द-ए-जवाँ भी
ग़ाज़ा ओ रंग की माशूक़ाएँ

जिन की लताफ़त शब भर की थी
इत्र और रेशम की मीनाएँ

जिन की सहबा लब भर की थी
आज का सुख था, कल का दुख था

आज की आशा, कल की निराशा
हँस हँस कर ग़म देख रहे थे

इन झूटी ख़ुशियों का तमाशा
ना-उम्मीदी के काँधों पर

रक्खा था उम्मीद का लाशा
आज वो ले लें, जो मिल जाए

कल क्या होगा कौन बताए
आज दिलों की शम्अ जलाएँ

कल शायद ये रात न आए
आज तो मय की कश्ती खे लें

कल ये सफ़ीना डूब न जाए
आज लबों का बोसा ले लें

मौत का बोसा कल लेना है
आज दिलों का क़र्ज़ चुका लें

कल तो सब कुछ दे देना है
इस नाज़ुक लम्हे में मैं ने

रूह-ए-बशर को वीराँ देखा
एटम-बम के ख़ौफ़ के आगे

अक़्ल ओ ख़िरद को हैराँ देखा
सारे जहाँ को लर्ज़ां देखा

ज़िक्र नहीं ये फ़र्ज़ानों का
क़िस्सा है इक दीवानों का

दोश-ए-हवा पर तारीकी ने
ज़ुल्फ़ों के ख़म खोल दिए थे

मास्को की ख़ामोश फ़ज़ा में
रात की आँखों के काजल ने

कितने जादू घोल दिए थे
सुर्ख़ ओ सियह मख़मल के ऊपर

शाम के सायों को नींद आई
डसने लगी मुझ को तन्हाई

मय-ख़ाने में जा कर मैं ने
आग से दिल की प्यास बुझाई

ख़ुश-फ़िक्रों का अब्र-ए-बहाराँ
झूम पड़ा था मय-ख़ानों पर

बादा-कशों का रंगीं झुरमुट
टूट पड़ा था पैमानों पर

साज़ की लय में तेज़ी आई
नश्शा-ए-मय की अंगड़ाई ने

अपना हसीं परचम लहराया
चप्पा चप्पा ज़र्रा ज़र्रा

क़तरा क़तरा रक़्स में आया
नग़्मों के बे-ताब भँवर को

लब के टुकड़े चूम रहे थे
रक़्स के बेकल गिर्दाबों में

जिस्म के तूफ़ाँ घूम रहे थे
चेहरों की रौशन क़िंदीलें

बाँहों की दिल-कश मेहराबें
राग नज़र की ख़ामोशी के

जुम्बिश-ए-मिज़्गाँ की मिज़्राबें
इस गर्दिश में दरहम-बरहम

सारा निज़ाम-ए-शमस-ओ-क़मर था
पिघल गए थे चाँद और सूरज

महफ़िल-ए-गुल में रक़्स-ए-शरर था
रात की पेशानी से जैसे

तारों का झूमर टूट गया हो
पीर-ए-फ़लक के हाथ से जैसे

तश्त-ए-ज़मर्रुद छूट गया हो
हीरे, नीलम, लाल और मोती

ख़ाक पे जैसे बिखर रहे हैं
जैसे किसी के बरहम गेसू

बिखर बिखर कर सँवर रहे हों
नश्शा-ए-मय के सर पर लेकिन

अक़्ल ओ ख़िरद का ताज धरा था
दूर से बैठा बैठा मुझ को

एक शराबी देख रहा था
उस ने हवा में हाथ से अपने

नन्हा सा इक बोसा फेंका
इक तितली सी उड़ती आई

मेरे दिल के फूल के ऊपर
कुछ काँपी और कुछ मंडलाई

बैठ गई पर जोड़ के दोनों
प्यार के रस को चूस के उट्ठी

और मिरी जानिब से हवा में
बोसा बन कर फिर लहराई

कुछ शर्माई, कुछ इतराई
और शराबी मेज़ से उठ कर

रक़्स के हल्क़ों से टकराता
कश्ती की सूरत चकराता

हाथ में अपना जाम उठाए
मेरी जानिब झूमता आया

ख़ंदाँ ख़ंदाँ, नाज़ाँ नाज़ाँ
रक़्साँ रक़्साँ, पेचाँ पेचाँ

मौज-ए-हवा को चूमता आया
मेरी ज़बाँ थी उर्दू, हिन्दी

उस की ज़बाँ थी रूसी लेकिन
एक ज़बाँ थी ऐसी भी जो

दोनों ज़बानों से प्यारी थी
दोनों जिस को बोल रहे थे

चंद इशारे चंद तबस्सुम
नज़रों का ख़ामोश तकल्लुम

हर्फ़ यही थे, लफ़्ज़ यही थे
शहद जो दिल में घोल रहे थे

हिन्द की मस्ती, रूस का नक़्शा
दोनों ने इक जाम बनाया

और हवा में उस को नचाया
साथ हमारे सब रिंदों ने

अपने दिलों को हाथ में ले कर
मेरे वतन का जाम उठाया

अब जो मैं ने मुड़ कर देखा
जश्न न था ये दीवानों का

गिर्द हमारे अम्न की देवी
गीत की हूरें साज़ की परियाँ

नग़्मे और आवाज़ की लड़ियाँ
पैरिस की बद-बख़्त हसीना

मग़रूर अमरीका का सिपाही
लंदन का बदमस्त शराबी

ऐश ओ तरब की महबूबाएँ
नश्शा-ए-मय की दोशीज़ाएँ

ग़ाज़ा ओ रंग की माशूक़ाएँ
इत्र और रेशम की मीनाएँ

'हाफ़िज़' और 'ग़ालिब' की ग़ज़लें
'पुश्किन' और 'टैगोर' की नज़्में

कितने नाज़ और कितनी अदाएँ
कितनी शीरीं और लैलाएँ

कितने राँझे, कितनी हीरें
कितने बुत, कितनी तस्वीरें

अम्न की कोशिश और तदबीरें
मशरिक़ ओ मग़रिब की तक़दीरें

हल्क़ा बाँधे नाच रही थीं
मैं ने इस नाज़ुक लम्हे में

रूह-ए-बशर को नाज़ाँ देखा
नश्शा ओ रक़्स के पेच ओ ख़म में

प्यार का जज़्बा रक़्साँ देखा
सारे जहाँ को ख़ंदाँ देखा

ज़िक्र नहीं ये फ़र्ज़ानों का
क़िस्सा है इक दीवानों का