टेलीविज़न अहद-ए-हाज़िर का इक अफ़लातून है
लग गया है जो हमारे मुँह को ये वो ख़ून है
इस तरह टेलीविज़न का हर ड्रामा हो गया
जैसे लाज़िम शेरवानी पर पजामा हो गया
इश्तिहार इस तरह लाज़िम है ख़बर-नामे के ब'अद
जैसे फ़ुल-स्टाप की मौजूदगी कामे के ब'अद
इक डरामा नश्र होता है जो आधी रात में
वो बहुत मक़्बूल है इस अहद के जिन्नात में
जिस जगह टाइम बचा थोड़ा सा गाना दे दिया
रात के बारा-बजे क़ौमी तराना दे दिया
महफ़िल-ए-शे'अरी को आधी रात में भुगता दिया
भैरवीं का राग पौने-नौ-बजे चिपका दिया
आज फिर फ़न्नी ख़राबी हो गई दो-चार बार
इंतिज़ार ओ इंतिज़ार ओ इंतिज़ार ओ इंतिज़ार
टेलीविज़न हो गया संगीन बीवी की तरह
और बीवी हो गई रंगीन टीवी की तरह
नज़्म
टेलीविज़न
खालिद इरफ़ान