मुझ को तशवीश है कुछ रोज़ से मेरे महबूब 
मेरे अंदाज़-ए-तफ़क्कुर की ये पुर-ख़ार रविश 
तेरी हस्सास तबीअत को न कर दे मजरूह 
और तू समझे कि नहीं तुझ में वो पहली सी कशिश 
अब भी जल्वों में है तख़्लीक़-ए-मोहब्बत की सकत 
तिरी बातों में अभी तक है फ़ुसूँ का अंदाज़ 
आरिज़ ओ लब पे तबस्सुम का ख़िराम-ए-मदहोश 
अब भी देता है तख़य्युल को पयाम-ए-परवाज़ 
फिर भी एहसास-ए-मसर्रत का न हो ज़ेहन को होश 
गिन तो सकता हूँ, शब-ए-हिज्र में तारों को मगर 
ज़ेहन आवारा ख़यालात से भर जाता है 
अश्क-ए-मजबूर बहाऊँ ग़म-ए-जानाँ में मगर 
सिलसिला मेरे इन अश्कों का बिखर जाता है 
मुझ को तशवीश है कुछ रोज़ से मेरे महबूब 
मिरे अंदाज़-ए-तकल्लुम की ये बेगाना-रवी 
तेरी हस्सास तबीअत को न कर दे मजरूह 
और तस्कीं न हो फिर हुस्न-ए-ख़ुद-आरा को कभी
        नज़्म
तशवीश
हसन नईम

