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तक़रीब-ए-रू-नुमाई | शाही शायरी
taqrib-e-ru-numai

नज़्म

तक़रीब-ए-रू-नुमाई

खालिद इरफ़ान

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किताब छप गई छे रंगे टाइटल के साथ
तबाअत और किताबत कोई जवाब नहीं

ये रंग और ये नव्वे ग्राम का पेपर
अदब के बाब में ऐसी कोई किताब नहीं

सजी थी बज़्म-ए-पज़ीराई एक होटल में
जहाँ गुलाब से चेहरे तो थे गुलाब नहीं

किसी वज़ीर ने इस बज़्म की सदारत की
ये बात मुझ को बताने से इज्तिनाब नहीं

ख़ुशा कि बज़्म में हाज़िर थे रेडियो टीवी
निज़ाम-ए-गर्दिश-ए-दौराँ तिरा जवाब नहीं

मुक़र्ररीन में शामिल थे सब हैं दानिश-वर
वो हस्तियाँ थीं जिन्हें देखने की ताब नहीं

ये कह के 'ग़ालिब' ओ 'मोमिन' का दे दिया दर्जा
अदब में ऐसा कोई और आफ़्ताब नहीं

मगर किताब की तक़रीब-ए-रू-नुमाई में
किताब चीख़ रही थी कि मैं किताब नहीं